- मेरा नकाब किसी गैर ने हटाया है
ये मुझे किसी अपने ने ही बताया है
मुझसे रौशनी की उम्मीद करता है बुढ़ापा
मैंने बचपन अपना अँधेरे में बिताया है
मेरा दर्द भी दर्द की इंतिहा निकला जब
फूलो का जख्म दिया काँटों ने सहलाया है
किसी और की खातिर सजा देता रहा तुझे
ए जिंदगी मैंने तुझे बहुत रुलाया है
अपने दिल का बिस्तर था ही ऐसा चहल
खुद जागा हूँ और गमो को सुलाया है
Tuesday, January 24, 2012
ए जिंदगी मैंने तुझे बहुत रुलाया है
Saturday, January 7, 2012
चाँद सूरज और धरती
चाँद और सूरज लड़ पड़े तेरे दीदार के पीछे
कौन है खुशनसीब एक दुसरे की टांगे खींचे
हारकर दोनों ने ली फिर अदालत की पनाह
धरतीमाँ को जज बनाया धूप चांदनी बनी गवाह
फिर अदालत शुरू हुई धरती ने मेज थपथपाई
अपनी बात रखने को पहले सूरज की बरी आई
सूरज ने गुमान में कटघरे में की कुछ यू चरचा
उसकी गरज से जल गया अदालत का हर परचा
बोला सुबह से शाम तक मै महबूब का दीदार करता हूँ
मजलिश सत्संग सुनता हूँ उस पे दिल जान से मरता हूँ
और चाँद तो अपनी किस्मत पे झूठा ही इतराता है
ये तो उनके दीदार भी कभी कभार ही कर पाता है
सूरज की इस बात पे धूप ने भी मोहर लगाई
फिर कटघरे में आने की चाँद की बारी आई
चाँद थोडा शरमाया
पर बिलकुल नही घबराया
बोला मानता हूँ चाँद तेरी धूप है मेरी चांदनी से वाईट
पर क्या तुने कभी देखी है मस्तो मस्त रूहानी रूबरू नाईट
हर रविवार को स्टेडियम के चक्कर लगाता हूँ
रूहानी शराब पीकर उसके साथ मै भी गाता हूँ
बांधकर घुंघरू पावों में मै झूम झूम कर नाचता हूँ
मान ना मान सूरज मै तुझसे ज्यादा काचे काटता हूँ
सुनकर उनकी दलीलें धरती को हाँसी आई
अपनी हाँसी बड़ी मुश्किल से वो रोक पाई
बोली दफा हो जाओ दोनों इस केस का कोई आधार नही
अरे जिसकी छाती पे रहे महबूब क्या उसका कोई अधिकार नही
मेरे शरीर पर जगह जगह उसके क़दमों के निशान है
अब तुम ही बताओ हम तीनो में कौन महान है ?
अब तुम ही बताओ हम तीनो में कौन महान है ?
अब तुम ही बताओ हम तीनो में कौन महान है ?
Thursday, December 29, 2011
सावधान.....
मुझ से उम्मीद बांधने वालो सावधान हो जाओ
मै वो नही जो तुम समझ रहे हो
मै एक बुझते दिए की लो जैसा हूँ
जिसे जलना भी है और लड़ना भी है
अंधकार से और खुद के अस्तित्व से
मेरी सिर पे कर्ज है एक धूप में झुलसी हुई चमड़ी का
जिसे मेरा बाप अपने शारीर पर
एक चादर की तरह ओढ़कर मेरे भविष्य के लिए दुआ करता है
मै करजई हूँ उन मिटी हुई हाथ की लकीरों का
जिनकी जगह फटी हुई बुवाइओ ने
तब से कब्ज़ा जमा रखा है
जब से मेरी माँ ने मेरी तरक्की के सपने देखने शुरू किये थे
मुझे चुकाना है हिसाब सूद समेत उन आशाओ का
जो दुसरो का पेट भरना ही जानती है पर
अपना पेट भरना उन्हें आज तक नही आया
अब आप ही कहो ऐसे में मुझे कैसे याद रहेंगे नाम
उन फूलो के जिस की तुलना सोंदर्य से की जाती है
चांदनी रात की आभा उस धरातल पे खड़े होकर कैसे निहारु
जहा खड़े होते ही चांद में
एक बड़ी सी रोटी के सिवा और कुछ नही दिखता
मौन .........
ए लोगों के रोशनदानों से झांक कर
उनकी निजता को चटकारो का मिश्रण देकर
परोसने वाले पुरोधाओ
स्टिंग ओपरेशन की तलवार से
एक बक्से में बैठकर लड़ने वाले योद्धाओ
हिम्मत है तो मेरे पेट की
आँतडियो का हाल परोस के दिखाओ
अगर पिया है अपनी असल माँ का दूध
तो जरा गिन के दिखाओ
मेरे पेट के भीतर पड़े अनाज के दाने
खोखली लगती है शायद ये आधारहीन बाते तुम्हे
पर याद रखो जिस दिन मै रूठ गया
उस दिन बाँझ हो जाएगी ये धरती माँ
और खाली हो जायेंगे तुम्हारे पेट
फिर खा लेना मेज पे पड़े ये कागज
और पी लेना इन पैनो की सियाही
अगर फिर भी भूख ना मिटे
तो डाउनलोड कर के दिखाना
सिर्फ एक गोल गोल रोटी
अगर ऐसा कर पाओ
तो मै त्याग दूंगा अपनी अन्नदाता की पदवी
और धार लूँगा कभी न टूटने वाला मौन .........
Saturday, December 24, 2011
मै.....
मै
इक्कीसवीं सदी का
आधुनिक मानव
जब
रोटी से ऊपर उठकर
वर्तमान के
अत्याधुनिक समाज पर
तनिक दृष्टि डालता हू
तब मस्तिष्क में
कुछ खोखलापन सा
खटकता है
आँखों से पलकों के परदे
पुनः
हटने को मचलते है
तब पता हू
इर्द गिर्द
कुछ बिखरे कातिल से
बिन पंख वाले
मुर्दा सपने
मुह फेरे
खुद से ही बतियाते
तेज हीन चेहरे
बड़े बड़े भवनों में कैद
असंख्य चीखें
और बिन साँस लिए
जीवन की
कभी ना खत्म होने वाली
दौड़
गर रोटी से ऊपर
यही दृष्टांत है
तो फिर
मै रोटी की सोच तक ही
सिमटना चाहता हू
रमेश चहल .....................
इक्कीसवीं सदी का
आधुनिक मानव
जब
रोटी से ऊपर उठकर
वर्तमान के
अत्याधुनिक समाज पर
तनिक दृष्टि डालता हू
तब मस्तिष्क में
कुछ खोखलापन सा
खटकता है
आँखों से पलकों के परदे
पुनः
हटने को मचलते है
तब पता हू
इर्द गिर्द
कुछ बिखरे कातिल से
बिन पंख वाले
मुर्दा सपने
मुह फेरे
खुद से ही बतियाते
तेज हीन चेहरे
बड़े बड़े भवनों में कैद
असंख्य चीखें
और बिन साँस लिए
जीवन की
कभी ना खत्म होने वाली
दौड़
गर रोटी से ऊपर
यही दृष्टांत है
तो फिर
मै रोटी की सोच तक ही
सिमटना चाहता हू
Saturday, October 15, 2011
तू बावला होरया सै रुलदू
कागज फरोलते फरोलते सबेर आज 7 - 8 साल पुराणी कविता हाथ लगी .मेरी लिखी
दूसरी हरयाणवी कविता है या... कविता लिखी गयी थी B A फर्स्ट इयर मै जब मै
18 साल का था ............. .........अर बोली बी थी रत्नावली फेस्ट मै
...................... पहली बार सीनेट हाल मै..........खास बात या थी अक
उसे साल रत्नावली मै पोएट्री कॉम्पीटीसन. शुरू होया था ...... पहली साल 81
एंट्रीज थी जहा तक मेरा खियाल है ....... और उसमे दूसरा स्थान पाया था इस
कविता ..ने ..... इस लिए उन यादो के पिटारे से एक मोती आप के पेशे खिदमत
...
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कयूँ बावला होरया सै रुलदू यो तेरा हरयाणा नहीं
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पैरा मै रुलदी संस्कृति का कोई क्यूँ ठान्दा ठाणा नहीं
कयूँ सुनवाई खातर इसकी बनया अदालत थाणा नहीं
धरती नै सूंघ कै किस की पैड काढैगा
तू बावला होरया सै रुलदू यो तेरा हरयाणा नहीं .............
करू गुमान आज मै दुनिया की किस हस्ती पै
लाखो द्रोपदी नंगी होली इस किरसन की धरती पै
दुशासन का राज होया निरे धरम अर ज़ात बीकै सै
न्याय के इस अखाड़े मै रै रुलदू निरे गात बीकै सै
रांझे खुद दुश्मन हीर के कोई आखन काणा नहीं
हरफूल जाट जुलानी का क्यूँ फेर तै होया आणा नहीं
तू बावला होरया सै रुलदू यो तेरा हरयाणा नहीं .............
माँ बोली के कपडे तार सारे आम तमाशा दिखान्दे देखे
शहर की नक़ल गामा मै चाली बालक सियाणे गिरकांदे देखे
खुला आंगण बीच मै चूल्हा गिदाल्या गेल गिरांदे देखे
लोक गीत अर रागनिया नै तडपाकै काचा मंदा गांदे देखे
समझदार बेठे सै सारे कोई बालक याणा नहीं
फेर क्यु संस्कृति का कोए बुनता ताणा बाणा नहीं
तू बावला होरया सै रुलदू यो तेरा हरयाणा नहीं .............
बहु बेटी की इज्जत करनिये माणस ना वै आम रहे
फैसन तै बिना आज के गबरुवा नै ना काम रहे
बेटे की अगत की चाह मै बिक माँ बापां के चाम रहे
अर आंधी पीसै कुत्ता खावै लुट गामां के गाम रहे
चाला होगया कालेज आया बाप आज बेटे नै पीछाणा नहीं
अर गेट पै बैठ कै साल काढ दी कदे कालेज मै जाणा नहीं
तू बावला होरया सै रुलदू यो तेरा हरयाणा नहीं .............
सणे डाहले आज टूटी पींघ सामण की व़ा रीत गयी
दयोर कै ऊपर भाभी की फागण की व़ा जीत गयी
हाथ गात नै खावण लागे टूट रिश्त्या की भीत गयी
बाजरे की रोटी चटणी टिंडी व़ा ठंडी ठंडी शीत गयी
बियाह दसुटण पै डी जे रींगै किते बाजा नगाड़ा बजाणा नहीं
लाडो की मन की मन मैए रहगी कोई सांझी अर ढूकाणा नहीं
तू बावला होरया सै रुलदू यो तेरा हरयाणा नहीं .............
गुड के कोल्हू सांझे खलिहान बिड्सी की व़ा बात गयी
कठे पाली भैंस चरावै आज कित वै चांदनी रात गयी
मिल बैठ कै रोटी खाणिए माणसा की व़ा ज़ात गयी
बोल के गेल माणस मारदे सांगियाँ की औकात गयी
चरखे पड़े आज सारे छाता पै किसे मै भी ताकू ताणा नहीं
धनपत की ठहरो बियास की ठेस अर लख्मीचंद का गाणा नहीं
तू बावला होरया सै रुलदू यो तेरा हरयाणा नहीं .............
खुद की ओलाद नै पेट मै मरवादे इसा जमाना आरया सै
किसे कै धर्म ईमान नहीं माणस नै माणस खारया सै
बहुवा की सुण कै माँ काढदी बहण का रहया ओ भाई ना
अर भाई नै भाई पल मै मार दे कोई दादी चाची ताई ना
अपणी जननी कै लात मारदे आदमियत का ओ दाणा नहीं
अर सारे ऊरा परा नै खिंडगे रहया कोई माणस सियाणा नहीं
तू बावला होरया सै रुलदू यो तेरा हरयाणा नहीं .............
तेरा हरयाणा नहीं .............
तेरा हरयाणा नहीं .............

तीसरी पसली के नीचे बहुत दर्द हो रहा है
अक्सर हंसाने वाला आज खुद रो रहा है
मै जिंदा हूँ मुझे यकीन दिलाओ दोस्तो !
और बताओ मेरी कब्र में ये कोन सो रहा है
जिंदगी का फलसफा छूट गया काफी पीछे
मेरा कोई अपना ही पीठ पर जहर बो रहा है
यही कहा था उसने वो मेरा है सिर्फ मेरा ही
फिर आज क्यों वो किसी दुसरे का हो रहा है
गजल के लिए दर्द नहीं प्यार माँगा था मैंने
दुआ में कमी थी कहीं चहल जो दर्द हो रहा है
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