Tuesday, June 19, 2018

माँ कहाँ हो तुम

तू चाहती थी न तेरा बेटा बड़ा आदमी बने
तो देख माँ  बन गया हूँ मैं
 इतना बड़ा कि हर  रिश्ता
मुझे छोटा लगने लगा है
तेरी गोद से ज्यादा मुलायम लगती है वो
गद्देदार कुर्सी
जिसमे ममता की गर्माहट
नहीं भर पाया
कोई भी पागल इंजीनियर
तू चाहती था न
मैं खाली रह कर
समय घर पे न बर्बाद करू
तो देख माँ
तेरे लाडले के पास आज
खुद के लिए ही समय नहीं है
दीदी का जब फोन आता है
तो शिव धनुष से भी भारी हो जाता है
और नहीं उठा पाता मैं
तू चाहती थी न
तेरे बेटे को दुनिया पहचाने
तो देख माँ
कल अपनी पहचान के लिए
मैंने पिता को ही पहचानने से इंकार कर दिया
और खुद की ही पहचान भूल गया मैं
माँ अब गुस्सा आने लगा है
दुत्कारने लगा हूँ
और याद आती है तेरी डांट
जब तू गुड़ चोरी करने पर
 कान पकड़कर कहती थी
करमजले
कान में फुंसी हो जायेगी ज्यादा मीठा खाने से
और रात को
खुद ही बनाती गुड रोटी का चूरमा
माँ रोटी तो आज भी मिलती हैं
पर चूल्हे की सोंधी महक की जगह
जलने की  दुर्गन्ध से सनी
और गुड़ तो रसोई से गायब ही हो गया माँ।
                                                               ---रमेश चहल।

बेईमान माँ.....


ना कायदा कानून ना मानती घर का संविधान थी।
मेरी गलतियाँ छिपाने वाली मेरी माँ बे ईमान थी।

टॉफी कुल्फी लच्छे माँ चोरी चोरी खिलाती थी।
बाप के जेब से पैसे भी वो चोरी चोरी चुराती थी।
माँ के सिर पर ही मेलो के खिलौने अपने थे।
मिठाई पकवान सब सार्थक थे ना सपने थे।
बाप के लिए बेईमान मगर मेरे लिए ईमान थी
मेरी गलतियाँ छिपाने वाली मेरी माँ बे ईमान थी।

पापा मारते थे तो वो दीवार बन खड़ जाती थी।
मेरे दोष पर वो घर के मुखिया से लड़ जाती थी।
तेरे लाड ने इसे बिगाड़ दिया माँ पर ये आरोप थे।
जलते हैं सब मेरे लाल से माँ के ये प्रत्यारोप थे।
जानती थी कसूर मेरा है फिर भी अनजान थी।
मेरी गलतियाँ छिपाने वाली मेरी माँ बे ईमान थी।

पर अब मैं माँ के लाड दुलार से परेशान हो गया हूँ ।
खुद की नजर में बच्चा नहीं मैं जवान हो गया हूँ ।
उसकी देखभाल दोस्तों अब नाटक सी लगती है l
सड़क चलते चलते रेल के फाटक सी लगती है।
मेरी नजर में माँ आज उपजाऊ नहीं बियाबान थी
मेरी गलतियाँ छिपाने वाली मेरी माँ बे ईमान थी।

पर आज माँ की नजरों में एक लकीर न्यारी है।
मेरी छांव में पलने वाले को आज पत्नी प्यारी है।
सच्चा था तेरा बाप बेटा बस मै ही निक्कमी झूठी थी
कभी घर कुनबे तो कभी कभी मैं पुरे गांव से रूठी थी।
दुत्कार में भी दुआ देने वाली वो पहली इंसान थी।
मेरी गलतियाँ छिपाने वाली मेरी माँ बे ईमान थी।

अपना रूप बनाया रब्ब ने तो बस इतना और कर देता
ममता का आधा हिस्सा माँ के लिए बेटे में भी भर देता।
फिर हर दिन होता माँ बेटे का न कही कोई तकरार थी।
साल में एक दिन मनाने की फिर किसे यारो दरकार थी। .
सपना था बस जिसमे बेटा तीर और माँ कमान थी।
मेरी गलतियाँ छिपाने वाली मेरी माँ बे ईमान थी।

ना कायदा कानून ना मानती घर का संविधान थी।
मेरी गलतियाँ छिपाने वाली मेरी माँ बे ईमान थी।
-रमेश चहल।

कभी कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था.....

आँख खुलते ही सामना सूरज से मेरा होता था।
 हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था।

आसमान में पंछी प्रभात फेरा लगाते थे|
पिहू-पिहू कर मोर सुबह की लोरी गाते थे|
दाना चुगा चुगती चुगती चिड़िया चहचाती थी|
अमरूद के पेड़ पर कोयल नया राग गा जाती थी|
कांव-कांव करते कौवे का भी बनेरा होता था|
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था|

घंटी की टन टन संग बैलों के पांव भी गाते थे|
कंधे पर हल रख किसान जब कमाने जाते थे|
गीत गाती पनिहारिन पनघट तक जाती थी|
कहार के कंधे कलकल की आवाज आती थी|
गुनगुनाता मिट्टी पीटता कुम्हार ठठेरा होता था|
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था|

अंबर से आ बादल सपनों पर पहरा देता था|
ठंडी हवा का झोंका नींद को कर गहरा देता था|
सोयों के उपर तितलियां भी बेखौफ घूमती थी|
पहली किरण चुपके से आकर चेहरा चूमती थी|
ओंस की बूंदों का चौगरदे तब घेरा होता था|
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था|

खुद समेटकर बिस्तर नीचे लाना होता था|
अब उठा है मिरासी बाप का ताना होता था|
नाश्ता कलेवा खा खाकर तब लोग जीते थे|
चाय नहीं अधबिलोए का वो कटोरा पीते थे|
सांझा था सब 'चहल' ना मेरा ना तेरा होता था
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था|

आँख खुलते ही सामना सूरज से मेरा होता था।
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था।
- रमेश  चहल।