Saturday, June 4, 2016

ढूंढता हूं सन्नाटा मैं एक शोर की खातिर

सूरज चढ़ा फांसी नवेली नई भोर की खातिर।
सरेबाजार शाह लुट गये इक चोर की खातिर।
अपने पंख गिरा आया वो गैर की छत पे
आस्तीन में पाले थे सांप जिस मोर की खातिर।
मौत की चौखट को मैं ठोकर मार आया हूं
मुझे अभी और जीना है किसी और की खातिर।
मुझे पाना है तो किसी इन्सान से यारी कर ले
ये चंदा मामा ने कहा कल चकोर की खातिर।
चीख चिल्लाकर कहूंगा अब मेरे दिल की बातें
तभी ढूंढता हूं सन्नाटा मैं एक शोर की खातिर
यूंही नहीं शायरी आ जाती'चहल'चलते चलते
गुजारा है बेहद बुरा वक्त इस दौर की खातिर।
रमेश चहल।

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