Saturday, May 18, 2013

पटबीजणा

माना पटबीज़णे के सिर पे कब चाँद -सूरज सा ताज होता है ?
लेकिन पटबीजणा भी कब किसी की रौशनी का मोहताज होता है ?

कहानी:- शर्म ------------------ रमेश चहल


अजीब-सी आवाज सुनकर मैं हड़बड़ाकर उठा। सुमित्रा भी मेरे साथ ही उठ कर बैठ गई। उसने बल्ब जगाकर मेरी ओर प्रश्नवाचक नजरें घुमाई। मैंने भी वैसे ही नजरों में कुछ न होने का आश्वासन दे दिया। शायद मेरी जुबान भारी हो चुकी थी। बाहर बारिश, हवाएं और कड़कती सर्दी मलयुद्ध में व्यस्त थी। कड़कती बिजलियां अपनी गर्जना के साथ निर्णायक होने का आभास थोड़ी-थोड़ी देर में करवा जाती। तीन दिनों से रूक-रूक कर हो रही बारिश ने भारी उत्पात मचाया था। छोटा भाई सुबह कह रहा था कि गर बारिश बंद न हुई तो शायद ही कोई अनाज का दाना घर आ पाए। सरकारी नौकरी में होने के बावजूद मुझे मेरे खेतों की चिंता थी। इसी चिंता को मस्तिष्क में बैठाए सोया ही था कि अचानक भयानक सी आवाज ने मुझे जगा दिया। तभी सुमित्रा पानी ले आई। 'कोई बुरा सपना देखा क्या?' मुझे पानी देते हुए वह बोली। 
'नहीं...तुमने कोई आवाज सुनी?'
'आवाज...? अच्छा वो...'
'हां-हां अजीब-सी...!'
'तुम भी ना...। ' कह कर सुमित्रा हंस दी और मुझे ऐसे देखने लगी जैसे कोई महामूर्ख उसके समक्ष बैठा हो। 
'हां-हां बताओ तो सही क्या था?'
'वह अपनी जो भुरी कुतिया है न धन्नों... जो अकसर खेतों में घूमा करती थी वह कल ब्या गई है और तीन पिल्ले दिए हैं।’ सुमित्रा बता रही थी।
'अच्छा ! कहां?' मैं थोड़ा उत्साहित हुआ।
'अपने तूड़ी वाले कूप में..., यह उसी के रोने की आवाज हैं।' वह बता गई।
'वह रो क्यों रही है?' उत्सुकतावश मैंने पूछा। ‘शायद भूखी है... और हो सक ता है कि बिजली के चमकने से डर रही हो। खैर! आप भी सो जाएं तो बेहतर होगा। साढ़े ग्यारह बज चुके हैं।' लेटते-लेटते सुमित्रा बोली।
'तुम सो जाओ मुझे नींद नहीं आ रही।' मैंने खड़े होकर शरीर पर कंबल लपेटते हुए कहा और कुर्सी लेकर खिड़की के पास जा बैठा। जैसे ही खिड़की 
खोली ठंडी हवा का एक झोंका सीधा कमरे में आ घुसा।' 
‘पागल हो गए हो...?
मुन्नी को ठंड लग गई तो फिरते रहना डाक्टरों के चक्कर लगाते। लाइट का कोई भरोसा नहीं और यह इनवर्टर कितने दिन रूम हीटर चलाएगा। बंद करो खिड़कियां...।' एक ही सांस में बोल गई वह। मैंने खिड़की पुन: बंद कर दी पर पता नहीं क्यों इस कमरे में मेरा दिल नहीं लग रहा था।
मैं गेट की ओर बढ़ गया। कंबल के अंदर मुझे ठंड का अहसास हो रहा था, पर मैं बरसते पानी को देखने के लिए ठंड सहने को तैयार था। बालकनी में रखी कुर्सी पर बैठा मैं बिजली की रोशनी में यदा-यदा चमकती निर्दयी बूंदों से नजरें मिलाने की कोशिश कर रहा था। कूप भी इधर ही था और धन्नों के रोने की आवाज भी पांच-दस मिनट के बाद सुनने को मिल जाती।
'बेचारी भूख से बेहाल हो रही होगी। क्यंू न रसोई से बचा-खुचा खाना कूप में फेंक आऊं।' सहसा मुझे ख्याल आया पर बरसात व ठंड के कारण अगले ही पल ख्याल बदल भी गया। मैं सोचने लगा शायद बिजली के चमकने से डर रही है और कोई ऐसी कहावत भी है जिसमें कुत्ते के बिजली से डरने का वर्णन है। कहावत क्या थी मुझे याद नहीं आ रही थी। इन जानवरों की जिंदगी भी कोई जिंदगी है। शुक्र है भगवान ने मुझे आदमी बनाया वरना मैं भी कहीं यूं ही इस ठंड में...।
तभी बिजली कड़की और नीचे आंगन में खड़े नीम के पेड़ के नीचे मुझे कोई जानवर दिखाई दिया। शायद कोई खरगोश खेत से निकलकर इधर आ गया है। सोचकर मैं फिर खेतों की ओर देखने लगा। अपनी फसल बचाने के लिए भी मैं कुछ नहीं कर सकता था। बारिश व हवा के थपेड़ों को गंहूं की आधा फुट ऊंची फसल अकेले ही झेलने पर मजबूर थी। यह भगवान भी न बस सबको कानी अांख से ही देखना पसंद करता है। जब बरसात की जरूरत थी तब नहीं कहां सोया रहा और आज जरूरत नहीं थी तो रूकने का नाम ही नहीं ले रहा। वाह प्रभु! तेरी माया, कहीं धूप तो कहीं...।
धन्नों के रोने की आवाज के साथ चमकती बिजली की रोशनी में पेड़ के नीचे वह जानवर फिर दिखा। पर यह खरगोश तो नहीं था! मैं अंदर गया और टार्च ले आया। टार्च की रोशनी जब बाहर फेंकी तो मैं स्तब्ध रह गया। यह तो बिल्ली थी जो पेड़ के नीचे लम्बी लेटी थी। उसके साथ ही एक छोटा-सा बच्चा भी पड़ा-पड़ा हिल रहा था। दूसरे बच्चे को बिल्ली जन्म दे रही थी। मेरे समक्ष भयानक दृश्य था। मैं टार्च की रोशनी लगातार उस पर फेंक कर देख रहा था। बारिश जारी थी। 
थोड़ी देर बाद बिल्ली दूसरे बच्चे को जन्म दे चुकी थी। मेरा मन हुआ कि बिल्ली व उसके बच्चे को उठाकर नीचे भैंसों वाले तबेले में छोड़ दूं पर ठंड व बारिश मेरी मजबूरी बने रहे और मैं तमाशबीन बना टार्च जलाए तमाशा देखता रहा। बिल्ली निढाल हो चुकी थी, पर बच्चे एक जगह पड़े हुए गोल-गोल घूम रहे थे। शायद उन्हें सर्दी बेचैन कर रही थी। कहीं यह स्वप्न तो नहीं मैंने शरीर पर चिकोटी काटी पर यह वास्तव ही था। 'आखिर बिल्ली पेड़ के नीचे ही क्यों गई? और जगह नहीं थी क्या? यूं तो उसके दोनों बच्चे मर जायेंगे।' पर मैं सिफ सोच ही सकता था। मेरे आराम और सर्दी के डर ने मुझे स्वार्थी बना दिया था। ' मरे तो मर जाएं, जब बिल्ली ही इन्हें अंदर नहीं ले जा रही तो मैं क्यों परेशानी झेलंू?'
यह सोचकर मैं अंदर जाने को हुआ ही था कि मेरी नजर सामने खड़ी धन्नों कुतिया पर पड़ी। मैं सिहर गया। अब तो बच्चे गये। धन्नों बिल्ली के चारों ओर चक्कर लगाकर शायद आक्रमण करने की तैयारी में थी, पर हैरानी थी कि बिल्ली के शरीर में कोई हरकत नहीं हो रही थी। 'आह शायद उफ!' सोचकर मैं अंदर तक कांप गया। 'कहीं बिल्ली मर तो नहीं गई?’ मैं वहीं खड़ा धन्नों को हिश्त-हिश्त करता रहा।
मुझे डर था कि ऊंचा बोलने पर कहीं मेरी बीवी व मुन्नी न जाग जाएं। पर जैसे धन्नों ने मेरी आवाज सुनी ही नहीं। उसने बच्चों को सूंघा व एक को मुंह में उठाया और कूप की ओर दौड़ पड़ी। मुझसे देखा नहीं गया और मैं टार्च बंद कर अदंर चला गया। अदंर सुमित्रा बेसुध सो रही थी। उसके पास ही मेरी आठ महीने की मुन्नी भी अंगुठा मुंह मे लिए सोई पड़ी थी। मुझे पता नहीं क्या हुआ कि मैंने अपनी लड़की को गोद में उठाया और उसे बेतहाशा चूमने लगा। मेरी इस हरकत से वह अबोध जाग गई और रोने लगी। उसका रोना सुन सुमित्रा की भी नींद खुल गई। 'क्या बात है? 'आंख खोलते ही उसका पहला प्रश्न था। ‘कुछ नहीं ..। तुम सुबह उस कुतिया को कूप से निकाल देना । रोटी तक नहीं देनी उसे। मुझे मेरे खेत में वह फिर दिखाई नहीं देनी चाहिए। मैं थोड़ा रूआंसा हो गया था। 
‘बात भी हुृई कुछ ? सुमित्रा थोड़े गुस्से में आ गई।’ मैने सारा वृंतात कह सुनाया । सुनकर वह भी उदास हो गई।’
'गलत ही हुआ ...।’ उसके मुंह से बस यहीं निकला। 
‘अब ..?' 
'अब क्या ...? जो करना था उस वक्त करते ..., मेरी क्यों नींद खराब करते हो ...., मुन्नी को भी जगा दिया , अब इसे कौन सुलाएगा? 'सुमित्रा के उलाहने शुरू हो चुके थे । मैं उलाहनों से बेखबर सोने का उपक्रम करने लगा पर नींद नहीं आ रही थी। 
बार-बार उस बिल्ली के बच्चों का ख्याल मन में आ रहा था । ' यह तो प्रकृति का नियम है’, कहकर दिल को तसल्ली देता रहा पर सब व्यर्थ। मुझे स्वयं में भी कहीं अपराधी दिखाई दे रहा था, पर विधि के विधान में मंै क्या कर सकता था? जिसकी जहां मौत लिखी है, वहीं होती है। मैं कौन होता था मौत रोकने वाला। शायद परमात्मा को मंजूर भी यही था। मैं अपना आलस्य परमात्मा के सिर पर मढ़कर स्वयं मुक्त होना चाहता था। मुझे नहीं पता कि नींद कब आई । स्वप्न में भी यहीं चलता रहा । कभी बिल्ली के बच्चों की जगह मेरी बच्ची को वह कुतिया मुहं में उठाए दिखती तो कभी बिल्ली के बच्चे मेरी बेटी की आवाज में चीखते -चिल्लाते नजर आते और मैं ठंड व बूंदों की बेड़ियों में जकड़ा ये सब देखता रहता , चिल्लाता रहता।
रविवार होने के वजह से मुझे नहीं उठाया गया। जब मैं उठा तो दस बज चुके थे। बारिश बंद हो चुकी थी और चिलचिलाती धूप ने अपना साम्राज्य फैला रखा था। मैं उठा और मुंह धोने चला गया। जैसे ही दर्पण में अपना चेहरा देखा तो रात वाली घटना फिर ताजा हो गई । बालकनी में गया तो नीचे आंगन में पानी भरा पड़ा था। पेड़ के नीचे बिल्ली मरी पड़ी थी। नौकर को आवाज दी और बिल्ली को वहां से उठवाने की कहकर मैं नीचे चला गया। बरामदे से लाठी उठाई और गुस्से में धन्नों कुतियों को भगाने की सोचकर कूप की ओर बढ़ा ।' तीन-चार लाठियों तो जमाऊंगा ही व बाद में उसके पिल्लों को भी बाहर फेंक दूंगा। पता नहीं भगवान ने यह हैवानों की जून क्यों बनाई जो एक-दूसरे के बच्चों को खाकर ही पेट भरते हैं। गनीमत है कि मैं मानव हूं।' मैं सोचता हुआ आगे बढ़े जा रहा था। कूप के निकट पहुंचकर मेरे हाथ लाठी पर कस गए और मैंने लाठी को ऊपर उठाकर जैसे ही कूप के अंदर झांका तो मैं अवाक ् रह गया ।
बिल्ली के दोनों बच्चे मजे से कुतिया का दूध पी रहे थे और कुतिया आंखें बंद किए आराम से लेटी थी। दृश्य देखकर मैं शर्म से पानी -पानी हो गया । आज मुझे अपने मानव होने पर शर्म आ रही थी।
----------------------रमेश चहल

कहानी - कुआँ सूख गया था ..... ------रमेश चहल





सुनकर मैं थोड़ा अचंभित हुए बिना ना रहा सका। बात ही ऐसी थी। अल्का तो इसे अन्यथा लेकर बिटिया को सुलाने की भी कह चुकी थी पर पता नहीं क्यों मेरा दिल नहीं मान रहा था। बात कुछ भी नहीं, और थी भी बहुत बड़ी। ऐसा कैसे हो सकता था। मेरी बिटिया ने आकर बताया कि उसकी बड़ी दादी मां यानि मेरी दादी को कहानियां नहीं आती। सुनकर एक बारगी तो मैं अपनी हंसी को नहीं रोक सका पर ज्यों ही बिटिया ने गंभीर होकर कहा तो मुझे विश्वास नहीं हुआ।
‘मैं ही क्यों मेरे पड़ोस के मेरे हम उम्र सभी तो दादी मां से कहानियां सुनकर ही बड़े हुए हंै। परी, दानव और राजकुमारों की कहानियों और किस्सों का तो खजाना है मेरी दादी पर आज ऐसा क्या हुआ कि......! खैर! मुझे क्या? मैं भी अल्का की तरह से इसे हलके से ले लेता हूं। शायद सुनाने का मूड न होगा या फिर मुझसे नाराजगी होगी। अरे हां। मैं भी तो उनका हाल-चाल कई-कई महीने तक नहीं पूछ पाता। ... पर बिटिया से तो नाराजगी नहीं होनी चाहिए।’ सोचता हुआ मैं सोने की तैयारी करने लगा।
‘मैंने ही जिद करके बिटिया को दादी के पास कहानियां सुनने के लिए भेजा था। लेकिन दादी से यह उम्मीद नहीं थी। क्या दादी वास्तव में ही मुझसे नाराज है?’ मैं करवटें बदल रहा था, अल्का और बिटिया दूसरे कमरे में टी.वी पर कोई रियलिटी शो देख रही थी। मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं उठा और बिटिया को आवाज दी। वह नहीं आई और न ही अल्का ने कोेई जवाब दिया। मैंने फिर आवाज दी लेकिन इस बार भी कोई जवाब नहीं आया। हारकर मैं कमरे में पहुंचा और बिटिया को गोद में उठाकर बाहर निकल आया। बिटिया बोलती रही, पापा मुझे देखना है, मुझे देखना है लेकिन मैंने उसकी एक भी नहीं सुनी। अल्का पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा वो वैसे ही टीवी में मग्न थी।
बिटिया को लेकर मैं दादी मां के कमरे की ओर चल दिया। पता नहीं मुझे क्या सूझ रहा था, दिल कर रहा था कि दादी मां से जाकर लडूं। उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाऊं। बिटिया को एक कहानी सुनाने में उनका क्या जाता था? लेकिन दूसरे ही पल मैंने सोचा कि कहीं घर में यूं ही हंगामा न हो जाए और बात भी न बढ़ जाए। किसी नए बखेड़े से बचने के लिए मैं चुपचाप ही दादी मां के कमरे में घुस गया। मुझे अचानक देखकर दादी मां चौंकी जरूर। चश्मा ठीक करती हुई बोली-‘‘अरे! सत्तू तूँ? इस बख्त?’’
‘‘हां दादी मां! सोचा काफी दिन हो गए आपके साथ बातें किए।’’ मैनें सीधे से बात पर ना आते हुए कहा।
‘‘दिन नहीं साल हो गए बेटा! सही ढंग से बातें किए। दो दिन के लिए आता है और भाग जाता है। उन दो दिनों में तेरी दादी के हिस्से में तो दो घंटे भी नहीं आते।’’ दादी ने उलाहना दे ही दिया तो मैं भी अपनी बात नहीं कर पाया।
‘‘हां दादी वो काम ही इतने है? समय ही नहीं मिलता।’’ मैं इतना ही कह पाया।
‘‘तो फिर आज दादी की याद कैसे आ गई जो इस समय यहां आए हो?’’दादी ने सवाल भी व्यंग्यात्मक तरीके से पूछा था इसलिए मुझसे जवाब दिया ही नहीं गया।
‘‘वो दादी बात ये कि कहानी सुने आपसे काफी दिन हो गए हैं। सोचा आज एक कहानी ही सुन लूं।’’ मैं हकलाते हुए कह ही गया।
‘‘सच्ची?’’ दादी ने पूछा।
‘‘हां दादी सच्ची।’’ मैंने कहा
‘‘नहीं सतू! तू झूठ बोल रहा है। तू कहानी सुनने नहीं आया बल्कि पूछने आया है कि बिटिया रानी को मैंने कहानी क्यों नहीं सुनाई।’’ दादी ने खुद ही कह दिया।
‘‘जी नहीं दादी... ऐसी बात नहीं है।’’ मैं फिर हकलाने लगा।
‘‘ऐसी ही बात है बेटा! वरना दादी के पास किसी और दिन क्यों नहीं आया?’’ दादी ने पूछा तो मैंने जवाब नहीं दे पाया। दादी भी मौन रही तो मैं धीरे से बोला- ‘‘दादी! नाराजगी मुझसे है तो फिर बिटिया को क्यों सजा देती हो?’’
‘‘ना रे कलमुंहे! ना तो तेरे से नाराजगी है और न ही गुड़िया से। ये तू सोच भी क्यों रहा है। बिटिया रानी मुझे तुझसे भी प्यारी लगती है क्योंकि कम से कम यह तो मेरे साथ खेल सकती है।’’ कहकर दादी ने बिटिया को बाहों में ले लिया और बिटिया ने भी दादी को गर्दन पर अपना आलिंगन कस दिया।
‘‘तो दादी इसे कहानियां जरूर सुनाया करो ताकि यह भी सिर्फ शहरी ही बनकर न रह पाए।’’ मैंने कहा।
‘‘तुझे क्या कम कहानियां सुनाई थी जो शहरी बन गया और अपनी दादी को ही भूल गया । कोई बात नहीं बच्चू कभी तू भी दादा बनेगा।’’ कहकर दादी रुआंसी सी हो गई। मैं किसी मुजरिम की तरह जमीन को देख रहा था।
‘‘आप दादी से ठीक से नहीं बोलते चलो सॉली बोलो।’’ लगभग तुतलाते हुए मेरी साढ़े छ: वर्षीया बिटिया बोली। सुनकर हम दोनों हंस पड़े । नन्हीं जान ने हमें फिर से सामान्य कर दिया था।
‘‘अच्छा छोड़! कौन सी कहानी सुनाऊं इसे? उससे बोलते हुए दादी बोली।
‘‘कोई सी भी आप तो कहानियों का कुं आ हो दादी।’’ मैनें मजाक किया।
‘‘पर ये कुंआ अब सूख चूका है बेटा! ’’दादी ही बोली
‘‘मतलब?’’
‘‘मतलब अब तेरी दादी को कहानियां याद ही नहीं है। मैं लगभग सारी कहानियां भूल चुकी हूं। ’’ दादी बोली
‘‘कैसे? ये कैसे हो सकता है दादी?’’ मैंने कहा।
‘‘बारह वर्ष के अकाल से तो किसान भी हल चलाना भूल जाते हैं बेटा तो क्या मैं 15 सालों के अकाल में कहानियां नहीं भूल सकती? सच में सतू ! तेरी कसम !15 साल पहले आखिरी कहानी तूने ही सुनी थी बेटा! उसके बाद आज तेरी बिटिया आई तो मेरे पास कुछ ऐसा नहीं था जो इसे सुना सकूं।’’ दादी का गला भर आया था।
‘‘तेरे बाद तेरे चाचाओं के लड़के , लड़कियां सभी टी.वी के आगे बैठ कर ही बडेÞ हुए हैें। दादी अकेली किसे कहानियां सुनाती। शुरू- शुरू में तो इन दीवारों से बतिया कर इन्हें ही कहानियां सुनाने का प्रयास करती रही पर ये निगोड़ी कहां हुंकारा भरती हैं। धीरे-धीरे मैं भी भूल गई।’’ दादी कह गई।
काफी देर कमरे में सन्नाटा पसरा रहा। बिटिया कभी मेरे मुंह की तरफ देखती तो कभी दादी के मुंह की तरफ।
‘‘तो दादी ऐसा करते हंै। आप कोई कहानी शुरू करो। कहीं भूलोगी तो मैं याद दिला दूंगा। और कुछ आप को याद आ जाएगा।’’ मैंने सुझाव दिया तो दादी मान गई।
दादी ने एक परियों की कहानी शुरू की। थोड़ा सा आगे ही गई थी कि मैंने टोक दिया। फिर टोका और बार-बार टोकने के क्रम में बिटिया ने ही हमें टोक दिया। बोली नहीं सुननी इस तरह और खड़ी हो गई। फिर मुड़ी और बोली- ‘‘ बड़ी दादी मैं सुनाऊं एक कहानी?’’
‘‘ हां सुनाओ बेटी!’’ दादी से कहां और सूखा कुआं नई बूंद सी आस लेकर बिटिया को देखने लगा।
‘‘वन्स देअ्र वाज ए क्रो। ही वाज वैरी थरस्टी। ही वेंट हेयर एंड देयर....।’’ बिटिया हाथ हिला हिलाकर कहानी सुना रही थी और अनपढ़ दादी बार-बार मेरी तरफ अनजान बनी देख रही थी। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। सूखा कुआं प्यासे कौवे से कोई भी शिक्षा ग्रहण करने में असमर्थ था जबकि बिटिया कहानी सुनाए ही जा रही थी।

------रमेश चहल 

सूरज की तरह चमकने की कभी चाह नहीं रखता ।
मै बगल में चोर और मुहँ में कभी शाह नहीं रखता । 

मै जुगनू हूँ चमक लेता हूँ खुद खातिर ही कभी कभी 
पल्लू में ज़हर ही सही किसी की आह नहीं रखता । 

उधार के नाम पर मंजूर मुझको दाद भी न होगी 
लौटा देता हूँ क़र्ज़ किसी की वाह वाह नहीं रखता । 

झुके ये सर बिन मुर्शिद के किसी और के आगे 
किताब-ए-जिंदगी में ऐसा कोई स्फाह नहीं रखता । 

ले जाये जो भटका के एक दिन दूर अपनों से 
एक मंजिल के लिए ऐसी कोई मै राह नहीं रखता ।
-रमेश चहल ।

बो कर ही मै आग गया हूँ ।


परबत के आगे डटने वाला खुद से ही मै भाग गया हूँ । 

बारूद की जगह उन तोपों से खुद को ही मै दाग गया हूँ ।। 

कह देना सपनो के सौदागर से तुम जाकर आज ही बेशक
बहला न और ज्यादा मुझको अब मै बिलकुल जाग गया हूँ । 

पौधे नही लावा फूटेगा इस बंजर बेजान ज़मीन से 
सोना देने वाली माँ के सीने में बो कर ही मै आग गया हूँ । 

अँधेरे से दोस्ती करने वालो एक बात समझ लो खरी खरी 
जलेंगे दिए हर मकान में मै छेड़ के दीपक राग गया हूँ । 

इशक़ इशक का जहर है ऐसा ना तोड़ जानता मै इसकी 
डसेगा पक्का मुझको ये मै छेड़ के फ़नियर नाग गया हूँ । 
                                                 ---रमेश चहल