Friday, September 26, 2014

--रमेश चहल।


आसमान में उड़ने वाला मैं अपने पर गवा बैठा। 
बेगानी दस्तार संभाले आज अपना सर गवा बैठा।।  

अनजान  परिंदा हूँ भटकना काम है मंजिलों  पर                                                                        
लोगो ने आशियां बना डाले मैं अपना घर गवा बैठा। 

अजब दस्तूर है यारो इन कड़कड़ते कागज़ों का 
कोई महफ़िल गवा बैठा तो कोई दर गवा बैठा। 

जाग कर काटी हैं वो स्याह रातें ग़ुरबत की 
नींद जब आई तो मैं अपना बिस्तर गवा बैठा।   

सियासत चीज़ ऐसी है चुभती रहेगी पग पग पर 
कल का अख़बार कहता है बाप वर गवा बैठा। 

एक कंधे से मिलके चला था 'चहल ' कुछ पाने को 
उसका खुदा खो गया और मैं अपना हर गवा बैठा।                  

आसमान में उड़ने वाला मैं अपने पर गवा बैठा। 
बेगानी दस्तार संभाले आज अपना सर गवा बैठा।  

                                                    --------------रमेश चहल।