Sunday, December 8, 2013

ये कह कर कल मैंने अपनी बैसाखियां तोड़ दी.....

पानी ने ही जब खुद मटके में ज़हर निचोड़ दी।
तब मेरे हाथों ने उसके मुँह पर चादर ओड़ दी।

इसका मोह मौत से डराएगा हर पल ही मुझे
बस इतना सोचा और ज़िंदगी बेलगाम छोड़ दी।

अब तब ही चलूँगा जब मेरे क़दमों में जान होगी
ये कह कर कल मैंने अपनी बैसाखियां तोड़ दी।

नींद से लगाव था एक शख्स को इतना ज्यादा
सुबह बांग के वक़त मुर्गे की ही गर्दन मरोड़ दी।

मेरे फूटने से तो मेरा झुक जाना ही बेहतर है
मेरे अपने सिर की मैंने ये पेशकश मोड़ दी। -रमेश चहल

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