Tuesday, June 19, 2018

कभी कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था.....

आँख खुलते ही सामना सूरज से मेरा होता था।
 हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था।

आसमान में पंछी प्रभात फेरा लगाते थे|
पिहू-पिहू कर मोर सुबह की लोरी गाते थे|
दाना चुगा चुगती चुगती चिड़िया चहचाती थी|
अमरूद के पेड़ पर कोयल नया राग गा जाती थी|
कांव-कांव करते कौवे का भी बनेरा होता था|
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था|

घंटी की टन टन संग बैलों के पांव भी गाते थे|
कंधे पर हल रख किसान जब कमाने जाते थे|
गीत गाती पनिहारिन पनघट तक जाती थी|
कहार के कंधे कलकल की आवाज आती थी|
गुनगुनाता मिट्टी पीटता कुम्हार ठठेरा होता था|
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था|

अंबर से आ बादल सपनों पर पहरा देता था|
ठंडी हवा का झोंका नींद को कर गहरा देता था|
सोयों के उपर तितलियां भी बेखौफ घूमती थी|
पहली किरण चुपके से आकर चेहरा चूमती थी|
ओंस की बूंदों का चौगरदे तब घेरा होता था|
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था|

खुद समेटकर बिस्तर नीचे लाना होता था|
अब उठा है मिरासी बाप का ताना होता था|
नाश्ता कलेवा खा खाकर तब लोग जीते थे|
चाय नहीं अधबिलोए का वो कटोरा पीते थे|
सांझा था सब 'चहल' ना मेरा ना तेरा होता था
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था|

आँख खुलते ही सामना सूरज से मेरा होता था।
हर रोज कभी यूं भी छत पर सवेरा होता था।
- रमेश  चहल।

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