Thursday, March 31, 2011

चहल गौरव अवार्ड


गाँव बड़ोदा में आयोजित चहल खाप महापंचायत में मुस्कान को मिला यह गौरव ...........

Thursday, March 17, 2011

बुत सिसकते है

३१ जनवरी २०११ के दैनिक ट्रिबुन के अंक में प्रकाशित मेरी कहानी


रमेश चहल

उत्तरी भारत के प्रदेशों में से किसी एक का छोटा-सा जिला, जहां रात अपनी साढ़े बारह बजे के बाद की जिंदगी आवारा कुत्तों, चोर, उचक्कों, चौकीदारों और यदा-कदा पुलिस के गश्ती दल के साथ काटती है। सुबह तीन से चार बजे तक भद्रजन भी रेलगाड़ी या बस पकडऩे के लिए तेज-तेज चलते दिखते हैं, पर वे खुले आसमान के नीचे अधिक देर तक नहीं टिक पाते। खुले आसमान एवं उनके मध्य बस एवं रेलगाडिय़ों की सुरक्षित छतें आ जाती हैं और वे अपने गंतव्य की ओर भागते नजर आते हैं। पिछले 40-50 वर्षों से इस शहर में यही हो रहा है। शहर के चौराहे पर खड़ी दो मूर्तियां इसकी पक्की गवाह हैं। इस शहर के पता नहीं कितने राज उनके पथरीले सीनों में दफन हैं। उनकी पाचन क्षमता ज्यादा है या उनको बनाने वाले ने जीभ नहीं बनाई ये तो पता नहीं, पर आज तक उन्होंने अपनी जुबान नहीं खोली। बस रात को ही तन्हाई मिटाने की गर्ज से कभी-कभी आपस में बतिया जरूर लेती हैं। नींद तो इनसे कभी मिलने ही नहीं आई। न आज और न आज से 70-80 वर्ष पहले जब ये जुबान खोला करते थे। दोनों में फासला यही कोई 20-25 मीटर के आसपास होगा। असंख्य नासूरों के साथ सीना ताने बिन हाथों वाले इन बुतों की व्यथा इन्हीं के माध्यम से सुनना ज्यादा सही रहेगा।
‘क्यों पंडित जी! आज कुछ उदास-से लग रहे हो?’ समांतर दिशा में मुंह किए हेट वाली पहली मूर्ति ने दूसरी को टोका।
‘हूं…हां… कैसे हो भगते!’ किसी गहन मुद्रा से जागते हुए दूसरी मूर्ति बोली।
‘यही प्रश्न तो मैंने आपसे ही पूछा था, आपने जवाब दिया?’
‘…हां और सुना…।’
‘अभी तक सुनाया ही क्या है?’ दोनों हंस पड़ी।
‘भगते…! यार मैं सोच रहा हूं कि हम कभी आजाद भी होंगे?’
‘मतलब… हम आजाद नहीं हैं। फिर क्यों अपने नाम के पीछे आजाद-आजाद लगाए घुमा करते थे’ कहकर पहली मूर्ति हंसने लगी।
‘भगते कभी तो गंभीर रहा कर…। मैं अपनी बात नहीं कर रहा, अपने देश की बात कर रहा हूं।’ दूसरी मूर्ति वास्तव में ही गंभीर दिख रही थी।
‘क्यों क्या हुआ देश को…? 1947 में आजाद तो हो गया था।’
‘अनजान मत बन। आजादी किसे कहते हैं ये मुझसे बेहतर जानता है तू।’ दोनों के बीच चुप्पी आ गई थी। थोड़ी देर बाद भगते की मूर्ति बोली, ‘यूं दिल दुखाने से कुछ नहीं होगा पंडित जी, बस अब तो चुपचाप देखते जाइए।’
‘क्यों कुछ नहीं होगा? हम मर चुके हैं मगर हमारी विचारधारा तो जिंदा है अभी। फिर क्रांति…।’
‘किस विचारधारा की बात करते हो पंडित जी? इस देश के नौजवान, जो खुद को क्रांतिकारी कहते हैं उन्हें लेनिन, माक्र्स और माओत्से जैसे लोगों की विचारधारा पसंद है। घर की मुर्गी दाल बराबर तक सिमेट दिया गया है हमें।’ स्वर में थोड़ी-सी कम्पन आ गई थी।
‘शायद तू सही है भगते पर…।’
‘हम गलत ही कब थे पंडित जी! यहां तो फांसी तक को भी लोगों में इंकलाब लाने का जरिया बनाया था और आज?’
‘नहीं भगते! शायद यही हमारी भूल थी। हम तो जोश में आकर शहादत की चादरें ओढ़ते रहे मगर पीछे ऐसे लोगों को छोड़ते रहे जो कायर थे। उन्होंने हमें क्या दिया? क्रांतिकारी की जगह एक आतंकवादी की उपाधि। आज लगता है कि हमने अपनी जवानी यूं ही खो दी।’
‘हमारी भूल नहीं थी पंडित जी। हम तो इंकलाब चाहते थे और इंकलाब आया भी, पर लोग उसे संभाल नहीं सके। अनुभव विहीन चमचों के हाथों में देश की बागडोर सौंपकर देशवासियों ने इसे ही आजादी समझ लिया और उसका परिणाम विभाजन के रूप में पहले दिन ही सामने आ गया। … अब सोचता हूं कि अच्छा हुआ मैं फांसी पर लटक गया वरना लायलपुर से इधर पंजाब की तरफ आते हुए किसी दंगाई के हाथों मारा जाता या अपने ही मुल्क में शरणार्थी की जिंदगी जीने पर मजबूर होता मैं!’ हेट वाली मूर्ति की बातों से दर्द बाहर आने लगा था।
‘और मैं आज अपने पोतों को आरक्षण के लिए सरकारों से लड़ते देखता हूं न! इन बातों का कोई फायदा नहीं भगते! जब मुल्क ही ऐसे हाथों में चला गया जो पैसे के लिए अपनी मां का भी सौदा कर सकते हैं, उन लोगों से उम्मीद ही क्या लगाई जा सकती है।’ सांत्वना के लिहाज से दूसरी बोली।
‘भारत मां ने बेटे जनने बंदकर दिए हैं पंडित जी! अब तो शहादत पर भी उंगलियां उठने लगी हैं। नेता जी के बलिदान को पूरा विश्व जानता है, पर हद है कि हमारे ही देश को चलाने वाला मंत्री कहता है कि नेताजी का स्वतंत्रता आंदोलन में कोई योगदान नहीं!’ हेट वाली मूर्ति की आंखों का दर्द और बढ़ गया था।
‘पूरी दुनिया को पता है कि बंगाल के इस नौजवान ने पूरी ब्रिटिश सरकार को हिलाकर रख दिया था और मृत्योपरांत भी देशवासी यही आस लगाए रहे कि नेताजी जिंदा हैं और जरूर आयेंगे। इस दिशाहीन हो चुकी राष्ट्र की बागडोर संभालने और ये कहते हैं कि …?’ पंडित जी की मूर्ति का चेहरा लाल हो गया, उसकी मूंछें फड़कने लगी थीं।
‘इनसे पूछने वाला हो कि गरहम आतंकवादी थे और नेताजी भी यूं ही घूमते रहे तो फिर फिरंगियों को देश से किसने निकाला? इतने अहसान फरामोश हो जाएंगे लोग कभी कल्पना भी नहीं की थी पंडित जी।’ हेट वाली मूर्ति का दर्द बढ़ता ही जा रहा था।
‘आज वही नेताजी बाजू वाले चौराहे पर चौकीदार बने खड़े हैं। उनकी सार संभाल तक कोई नहीं ले रहा। बहुत अच्छा सिला मिलता है यहां कुर्बानी का!’ दूसरी मूर्ति व्यंग्य पर उतर आई थी।
काफी देर तक दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। फिर हेट वाली मूर्ति बोली – ‘पंडित जी! कई बार तो मेरा दिल करता है कि मैं फिर जन्म लूं और फिर इंकलाब लाऊं…। आजादी की परिभाषा की व्याख्या मैं स्वयं करूं!’
‘कभी गलती मत करना भगते! बस यहीं खड़े तमाशा देखता रह।’
‘क्यों पंडित जी? इंकलाब लाना है, उसमें क्या कठिनाई है? फिर कुर्बानी ही तो देनी है, कौन-सा मुश्किल काम है अपने लिए?’
‘अफसोस भगत! तू वास्तविकता से इतना दूर है!’
‘मतलब?’
‘मतलब ये कि किसके खिलाफ लाएगा इंकलाब? आलसी, भ्रष्ट और मुफ्तखोर हो चुकी जनता के खिलाफ या अपराधियों से मंत्री बने लोगों के खिलाफ। हर कोई स्वार्थी है भगते। कुछ नहीं होने वाला इस देश का।’
‘गुलामी की बेडिय़ों में जकड़े राष्ट्र में भी आजाद शब्द का इस्तेमाल बेधड़क करने वाले मुंह से इस तरह की उम्मीद नहीं थी पंडित जी!’
उम्मीद तो इन हालातों की हमें भी नहीं थी भगते! आजादी की हवा में सांस लेने की तमन्ना दिल में लिए मरे थे हम। वह तमन्ना आज भी तमन्ना ही रह गई। आज कष्ट होता है उस फैसले को यादकर जब क्रांतिकारी बनने की सोची थी। क्रांतिकारी तो बन नहीं पाया, पर सत्तासीन लोगों ने आतंकवादी जरूर बना दिया। गर फिरंगियों को भयभीत करना ही आतंकवाद की श्रेणी में आता है तो थे हम आतंकवादी, पर जनता को भयभीत करने वालों की श्रेणी में क्यों रख जा रहा है?’ दर्द का दरिया दूसरी मूर्ति की आंखों से छलकने लगा था।
‘आप टूट चुके हो पंडित जी!’
‘तो फिर तू कौन-सा साबुत बचा है!’
‘नहीं पंडित जी! शहादत के बदले शोहरत के सपने हमने नहीं देखे थे!’
‘तो फिर ये सपने भी नहीं देखे कि हमारी आंखों के आगे लोग आपस में कट-कट मरें और सत्ता-सीन लोग उनकी मौत पर आंसुओं की जगह ठहाके लगाएं। देश की नदियों के निर्मल जल में रक्त का मिश्रण हमने नहीं सोचा था कभी। भारत मां की दर्द भरी आहें आजादी के बाद भी सुनने को मिलेंंगी, कभी कल्पना भी की थी हमने?’
‘गर सारे सपने सच होने लगें तो फिर मानव भगवान न बन जाए, पंडित जी!’
‘रोना तो इसी का है, भगते! हमने जो चाहा वह नहीं हुआ और जो राजनीतिज्ञ चाहते हैं वह हो जाता है। सोचता हूं काश! हम भी राजनीतिज्ञ होते और लोग हमारी भी मान लेते।’ पंडित जी ने ठंडी आह भरी।
‘आप राजनीतिज्ञ होते तो आपके दामन पर क्या पता कितने दाग होते। राजनीति और ईमानदारी का छत्तीस का आंकड़ा शुरू से ही है पंडित जी! आज हम बेदाग हैं तो इसी कारण कि हम राजनीतिज्ञ नहीं थे!’
‘फिर भगते! लोगों को कौन समझाएगा? कौन इंकलाब लाएगा?’
‘शायद कोई नहीं, पंडित जी! इंकलाब की हवा तो जा चुकी। रह गए बस पागल और मूर्ख लोग जो अपनी चाल में नहीं भेड़चाल में विश्वास रखते हैं। राष्ट्र की सफाई में हाथों को गंदा कोई नहीं करना चाहता।’
‘पागल और मूर्ख लोग। वाह! क्या संज्ञा दी है तूने भारतवासियों को, बात में दम है।’
‘हम भी भारतवासी हैं पंडित जी!’
‘ तो क्या हम भी भगते…?’
‘हां पंडित जी हम भी…।’ आवाज थोड़ी रूंध गई थी।
‘शायद तू सही है भगते! मुझे भी कभी-कभी लगता है कि मैं भी नाहक ही…। इन लोगों से तो फिरंगी अच्छे थे यार!’ आवाज में कम्पन भी थी।
‘धर्म व जात के नाम पे लडऩे के सिवा जानते ही क्या हैं हम पंडित जी? आजादी से पहले मुस्लमानों से नहीं बनी। मेरे पंजाब के टुकड़े हो गए और हिंदुस्तान के सीने को काटकर पाकिस्तान बनाया गया। दंगों का सिलसिला फिर भी नहीं रुका। फिर हिंदू-सिख भी आपस में मिलकर नहीं रह सके।’ भगत नामक बुत शून्य में निहारता हुआ खामोश हो गया था।
‘1983 के दंगे मुझे आज भी याद हैं भगते! जब प्रदर्शनकारियों ने तेरे गले में जलता टायर फेंका था और मेरे गले में फूलों की मालाएं डाली थीं। सालों ने हमें भी नहीं बख्शा। यहां भी बांटने चल पड़े थे…।’ साथ ही दायीं आंख की ओर से पानी की बूंद बह निकली थी जो गालों से होती हुई मूंछों पर जा अटकी थी।
‘हिंदू-सिखों की छोडिय़े पंडित जी! यहां तो सिख ही आजकल आपस में भिडऩे को फिर रहे हैं। मुझे लगता है पंजाब को कोई अदृश्य शाप है जो इसे शुरू से ही बसने नहीं देता। जब कोयलें बोलने लगती हैं तो धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाले कौवों को रास नहीं आता और कोयलों को कत्ल कर दिया जाता है। मेरा पंजाब बसदा पंजाब नहीं उजड़ता पंजाब बन गया है पंडित जी!’ भगते की दोनों आंखों से नीर निरंतर बहने लगा था।
‘आह…! मेरा देश…! मेरा भारत…! काश…! हम ही तेरा भविष्य संवार पाते।’ आंसू इधर भी निरंतर बह रहे थे।
‘सुबह होने वाली है पंडिज जी।’ भगते ने खुद पर काबू करते हुए चेताया।
‘तो फिर… कोई नया थोड़े ही होगा। सुबह के बाद दोपहर, फिर शाम और फिर रात…। रात को फिर सन्नाटा और सन्नाटे में जागते हम दो आतंकवादी…।’ पानी भरी आंखों में पीड़ा एवं व्यंग्य का मिश्रण भी चमक रहा था।
दोनों मूर्तियां सावधान मुद्रा में पहले की तरह समांतर चुपचाप उदासी लिए खड़ी थीं। सुबह अखबार बांटने वाले साइकिल पर दौड़ रहे थे, फिर सब्जी मंडी से सब्जी-फल खरीद कर लोग रेहडिय़ां, सजाने लगे। रिक्शा, आटोरिक्शा गाडिय़ां फिर धूल उड़ाने व धुआं छोडऩे में मशगूल हो गई थीं। शहर में शोर पल-पल बढ़ता जा रहा था। इन्हीं के बीच चौराहों पर खड़ी उन मूर्तियों के उन चेहरों की ओर देखने का समय किसी के पास नहीं था जिन पर रेत की एक नयी तह आज फिर जमने लगी थी। रेत से सनी इन मूर्तियों को देखकर कोई नहीं सोच सकता था कि रात के सन्नाटे में ये बुत सिसकते भी हैं।
- गांव हरिपुरा, जिला व तहसील कैथल

Friday, February 25, 2011

Monday, January 3, 2011

सर छोटू राम


चौधरी छोटूराम पर हिन्दी में एक लेख
रहबर-ए-आजम, गरीबों और किसानों के मसीहा, भारत माता के महान् सेवक सर छोटूराम का जन्म 24 नवम्बर 1881 में झज्जर के छोटे से गांव गढ़ी सांपला में बहुत ही साधारण परिवार में हुआ (झज्जर उस समय रोहतक जिले का ही अंग था)। छोटूराम का असली नाम राय रिछपाल था । अपने भाइयों में से सबसे छोटे थे इसलिए सारे परिवार के लोग इन्हें छोटू कहकर पुकारते थे । स्कूल रजिस्टर में भी इनका नाम छोटूराम ही लिखा दिया गया और ये महापुरुष छोटूराम के नाम से ही विख्यात हुए । उनके दादाश्री रामरत्‍न के पास 10 एकड़ बंजर व बारानी जमीन थी । छोटूराम जी के पिता श्री सुखीराम कर्जे और मुकदमों में बुरी तरह से फंसे हुए थे ।

Ch. Chhotu Ram - Photo at Gurukul Jhajjar.jpg
जनवरी सन् 1891 में छोटूराम ने अपने गांव से 12 मील की दूरी पर स्थित मिडिल स्कूल झज्जर में प्राइमरी शिक्षा ग्रहण की । उसके बाद झज्जर छोड़कर उन्होंने क्रिश्‍चियन मिशन स्कूल दिल्ली में प्रवेश लिया । लेकिन फीस और शिक्षा का खर्चा वहन करना बहुत बड़ी चुनौती थी उनके समक्ष । छोटूराम जी के अपने ही शब्दों में कि सांपला के साहूकार से जब पिता-पुत्र कर्जा लेने गए तो अपमान की चोट जो साहूकार ने मारी वो छोटूराम को एक महामानव बनाने के दिशा में एक शंखनाद था । छोटूराम के अंदर का क्रान्तिकारी युवा जाग चुका था । अब तो छोटूराम हर अन्याय के विरोध में खड़े होने का नाम हो गया था ।
क्रिश्‍चियन मिशन स्कूल के छात्रावास के प्रभारी के विरुद्ध श्री छोटूराम के जीवन की पहली विरोधात्मक हड़ताल थी । इस हड़ताल के संचालन को देखकर छोटूराम जी को स्कूल में 'जनरल रोबर्ट' के नाम से पुकारा जाने लगा । सन् 1903 में इंटरमीडियेट परीक्षा पास करने के बाद छोटूराम जी ने दिल्ली के अत्यन्त प्रतिष्‍ठित सैंट स्टीफन कालेज से 1905 में ग्रेजुएशन की डिग्री प्राप्‍त की । छोटूराम जी ने अपने जीवन के आरंभिक समय में ही सर्वोत्तम आदर्शों और युवा चरित्रवान छात्र के रूप में वैदिक धर्म और आर्यसमाज में अपनी आस्था बना ली थी ।
सन् 1905 में छोटूराम जी ने कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह के सह-निजी सचिव के रूप में कार्य किया और यहीं सन् 1907 तक अंग्रेजी के हिन्दुस्तान समाचारपत्र का संपादन किया । यहां से छोटूराम जी आगरा में वकालत की डिग्री करने आ गए ।
झज्जर जिले में जन्मा यह जुझारू युवा छात्र सन् 1911 में आगरा के जाट छात्रावास का अधीक्षक बना । 1911 में इन्होंने लॉ की डिग्री प्राप्‍त की । यहां रहकर छोटूराम जी ने मेरठ और आगरा डिवीजन की सामाजिक दशा का गहन अध्ययन किया । 1912 में आपने चौधरी लालचंद के साथ वकालत आरंभ कर दी और उसी साल जाट सभा का गठन किया । प्रथम विश्‍वयुद्ध के समय में चौधरी छोटूराम जी ने रोहतक से 22,144 जाट सैनिक भरती करवाये जो सारे अन्य सैनिकों का आधा भाग था । अब तो चौ. छोटूराम एक महान क्रांतिकारी समाज सुधारक के रूप में अपना स्थान बना चुके थे । इन्होंने अनेक शिक्षण संस्थानों की स्थापना की जिसमें "जाट आर्य-वैदिक संस्कृत हाई स्कूल रोहतक" प्रमुख है । एक जनवरी 1913 को जाट आर्य-समाज ने रोहतक में एक विशाल सभा की जिसमें जाट स्कूल की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया जिसके फलस्वरूप 7 सितम्बर 1913 में जाट स्कूल की स्थापना हुई ।
वकालत जैसे व्यवसाय में भी चौधरी साहब ने नए ऐतिहासिक आयाम जोड़े । उन्होंने झूठे मुकदमे न लेना, छल-कपट से दूर रहना, गरीबों को निःशुल्क कानूनी सलाह देना, मुव्वकिलों के साथ सद्‍व्यवहार करना, अपने वकालती जीवन का आदर्श बनाया ।
इन्हीं सिद्धान्तों का पालन करके केवल पेशे में ही नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू में चौधरी साहब बहुत ऊंचे उठ गये थे । इन्हीं दिनों 1915 में चौधरी छोटूराम जी ने 'जाट गजट' नाम का क्रांतिकारी अखबार शुरू किया जो हरयाणा का सबसे पुराना अखबार है, जो आज भी छपता है और जिसके माध्यम से छोटूराम जी ने ग्रामीण जनजीवन का उत्थान और साहूकारों द्वारा गरीब किसानों के शोषण पर एक सारगर्भित दर्शन दिया था जिस पर शोध की जा सकती है । चौधरी साहब ने किसानों को सही जीवन जीने का मूलमंत्र दिया । जाटों का सोनीपत की जुडिशियल बैंच में कोई प्रतिनिधि न होना, बहियों का विरोध, जिनके जरिये गरीब किसानों की जमीनों को गिरवी रखा जाता था, राज के साथ जुड़ी हुई साहूकार कोमों का विरोध जो किसानों की दुर्दशा के जिम्मेवार थे, के संदर्भ में किसान के शोषण के विरुद्ध उन्होंने डटकर प्रचार किया । उनके स्वयं के शब्दों में –
"किसान कुंभकरण की नींद सो रहा है, मैं जगाने की कौशिश कर रहा हूं - कभी तलवे में गुदगुदी करता हूं, कभी मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मारता हूं । वह आंखें खोलता है, करवट लेता है, अंगड़ाई लेता है और फिर जम्हाई लेकर सो जाता है । बात यह है कि किसान से फायदा उठाने वाली जमात एक ऐसी गैस अपने पास रखती है जिससे तुरंत बेहोशी पैदा हो जाती है और किसान फिर सो जाता है ।"
चौधरी साहब आगे लिखते हैं –
"किसान को लोग अन्नदाता तो कहते हैं लेकिन यह कोई नहीं देखता कि वह अन्न खाता भी है या नहीं । जो कमाता है वह भूखा रहे यह दुनिया का सबसे बड़ा आश्‍चर्य है । मैं राजा-नवाबों और हिन्दुस्तान की सभी प्रकार की सरकारों को कहता हूं कि वो किसान को इस कद्र तंग न करें कि वह उठ खड़ा हो । इस भोलानाथ को इतना तंग न करो कि वह तांडव नृत्य कर बैठे । दूसरे लोग जब सरकार से नाराज होते हैं तो कानून तोड़ते हैं, किसान जब नाराज होगा तो कानून ही नहीं तोड़ेगा, सरकार की पीठ भी तोड़ेगा ।"
चौ. छोटूराम ने राष्‍ट्र के स्वाधीनता संग्राम में डटकर भाग लिया । 1916 में पहली बार रोहतक में कांग्रेस कमेटी का गठन किया गया और चौ. छोटूराम रोहतक कांग्रेस कमेटी के प्रथम प्रधान बने । सारे जिले में चौधरी छोटूराम का आह्वान अंग्रेजी हुकूमत को कंपकपा देता था । चौधरी साहब के लेखों और कार्य को अंग्रेजों ने बहुत 'भयानक' करार दिया । फलःस्वरूप रोहतक के डिप्टी कमिश्‍नर ने तत्कालीन अंग्रेजी सरकार से चौधरी छोटूराम को देश-निकाले की सिफारिश कर दी । पंजाब सरकार ने अंग्रेज हुकमरानों को बताया कि चौधरी छोटूराम अपने आप में एक क्रांति हैं, उनका देश निकाला गदर मचा देगा, खून की नदियां बह जायेंगी । किसानों का एक-एक बच्चा चौधरी छोटूराम हो जायेगा । अंग्रेजों के हाथ कांप गए और कमिश्‍नर की सिफारिश को रद्द कर दिया गया ।
चौधरी छोटूराम, लाला श्याम लाल और उनके तीन वकील साथियों, नवल सिंह, लाला लालचंद जैन और खान मुश्ताक हुसैन ने रोहतक में एक ऐतिहासिक जलसे में मार्शल के दिनों में साम्राज्यशाही द्वारा किए गए अत्याचारों की घोर निंदा की । सारे इलाके में एक भूचाल सा आ गया । अंग्रेजी हुकमरानों की नींद उड़ गई । चौधरी छोटूराम व इनके साथियों को नौकरशाही ने अपने रोष का निशाना बना दिया और कारण बताओ नोटिस जारी किए गए कि क्यों न इनके वकालत के लाइसेंस रद्द कर दिये जायें । मुकदमा बहुत दिनों तक सैशन की अदालत में चलता रहा और आखिर चौधरी छोटूराम की जीत हुई । यह जीत नागरिक अधिकारों की जीत थी ।
अगस्त 1920 में चौ. छोटूराम ने कांग्रेस छोड़ दी क्योंकि चौधरी साहब गांधी जी के असहयोग आंदोलन से सहमत नहीं थे । उनका विचार था कि इस आंदोलन से किसानों का हित नहीं होगा । उनका मत था कि आजादी की लड़ाई संवैधानिक तरीके से लड़ी जाए । कुछ बातों पर वैचारिक मतभेद होते हुए भी चौधरी साहब महात्मा गांधी की महानता के प्रशंसक रहे और कांग्रेस को अच्छी जमात कहते थे । चौ. छोटूराम ने अपना कार्य क्षेत्र उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पंजाब तक फैला लिया और जाटों का सशक्त संगठन तैयार किया । आर्यसमाज और जाटों को एक मंच पर लाने के लिए उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द और भटिंडा गुरुकुल के मैनेजर चौधरी पीरूराम से संपर्क साध लिया और उसके कानूनी सलाहकार बन गए ।
सन् 1925 में राजस्थान में पुष्कर के पवित्र स्थान पर चौधरी छोटूराम ने एक ऐतिहासिक जलसे का आयोजन किया । सन् 1934 में राजस्थान के सीकर शहर में किराया कानून के विरोध में एक अभूतपूर्व रैली का आयोजन किया गया, जिसमें 10,000 जाट किसान शामिल हुए । यहां पर जनेऊ और देसी घी दान किया गया, महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश के श्‍लोकों का उच्चारण किया गया । इस रैली से चौधरी छोटूराम भारतवर्ष की राजनीति के स्तम्भ बन गए ।
पंजाब में रौलट एक्ट के विरुद्ध आन्दोलन को दबाने के लिए मार्शल लॉ लागू कर दिया गया था जिसके परिणामस्वरूप देश की राजनीति में एक अजीबोगरीब मोड़ आ गया ।
एक तरफ गांधी जी का असहयोग आंदोलन था तो दूसरी ओर प्रांतीय स्तर पर चौधरी छोटूराम और चौ. लालचंद आदि जाट नेताओं ने अंग्रेजी हुकूमत के साथ सहयोग की नीति अपना ली थी । पंजाब में मांटेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार लागू हो गए थे, सर फ़जले हुसैन ने खेतिहर किसानों की एक पार्टी जमींदारा पार्टी खड़ी कर दी । चौ. छोटूराम व इसके साथियों ने सर फ़जले हुसैन के साथ गठबंधन कर लिया और सर सिकंदर हयात खान के साथ मिलकर यूनियनिस्ट पार्टी का गठन किया । तब से हरयाणा में दो परस्पर विरोधी आंदोलन चलते रहे । चौधरी छोटूराम का टकराव एक ओर कांग्रेस से था तथा दूसरी ओर शहरी हिन्दु नेताओं व साहूकारों से होता था ।
चौधरी छोटूराम की जमींदारा पार्टी किसान, मजदूर, मुसलमान, सिख और शोषित लोगों की पार्टी थी । लेकिन यह पार्टी अंग्रेजों से टक्कर लेने को तैयार नहीं थी । हिंदू सभा व दूसरे शहरी हिन्दुओं की पार्टियों से चौधरी छोटूराम का मतभेद था । भारत सरकार अधिनियम 1919 के तहत 1920 में आम चुनाव कराए गए । इसका कांग्रेस ने बहिष्कार किया और चौ. छोटूराम व लालसिंह जमींदरा पार्टी से विजयी हुए । उधर 1930 में कांग्रेस ने एक और जाट नेता चौधरी देवीलाल को चौ. छोटूराम की पार्टी के विरोध में स्थापित किया । भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत सीमित लोकतंत्र के चुनाव 1937 में हुए । इसमें 175 सीटों में से यूनियनिस्ट पार्टी को 99, कांग्रेस को केवल 18, खालसा नेशनलिस्ट को 13 और हिन्दु महासभा को केवल 12 सीटें मिली थीं । हरयाणा देहाती सीट से केवल एक प्रत्याशी चौधरी दुनीचंद ही कांग्रेस से जीत पाये थे ।
चौधरी छोटूराम के कद का अंदाजा इस चुनाव से अंग्रेजों, कांग्रेसियों और सभी विरोधियों को हो गया था । चौधरी छोटूराम की लेखनी जब लिखती थी तो आग उगलती थी । 'ठग बाजार की सैर' और 'बेचारा किसान' के लेखों में से 17 लेख जाट गजट में छपे । 1937 में सिकन्दर हयात खान पंजाब के पहले प्रधानमंत्री बने और झज्जर के ये जुझारू नेता चौ. छोटूराम विकास व राजस्व मंत्री बने और गरीब किसान के मसीहा बन गए । चौधरी छोटूराम ने अनेक समाज सुधारक कानूनों के ररिए किसानों को शोषण से निज़ात दिलवाई ।
साहूकार पंजीकरण एक्ट - 1938
यह कानून 2 सितंबर 1938 को प्रभावी हुआ था । इसके अनुसार कोई भी साहूकार बिना पंजीकरण के किसी को कर्ज़ नहीं दे पाएगा और न ही किसानों पर अदालत में मुकदमा कर पायेगा । इस अधिनियम के कारण साहूकारों की एक फौज पर अंकुश लग गया ।
गिरवी जमीनों की मुफ्त वापसी एक्ट - 1938
यह कानून 9 सितंबर 1938 को प्रभावी हुआ । इस अधिनियम के जरिए जो जमीनें 8 जून 1901 के बाद कुर्की से बेची हुई थी तथा 37 सालों से गिरवी चली आ रही थीं, वो सारी जमीनें किसानों को वापिस दिलवाई गईं । इस कानून के तहत केवल एक सादे कागज पर जिलाधीश को प्रार्थना-पत्र देना होता था । इस कानून में अगर मूलराशि का दोगुणा धन साहूकार प्राप्‍त कर चुका है तो किसान को जमीन का पूर्ण स्वामित्व दिये जाने का प्रावधान किया गया ।
कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम - 1938
यह अधिनियम 5 मई, 1939 से प्रभावी माना गया । इसके तहत नोटिफाइड एरिया में मार्किट कमेटियों का गठन किया गया । एक कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार किसानों को अपनी फसल का मूल्य एक रुपये में से 60 पैसे ही मिल पाता था । अनेक कटौतियों का सामना किसानों को करना पड़ता था । आढ़त, तुलाई, रोलाई, मुनीमी, पल्लेदारी और कितनी ही कटौतियां होती थीं । इस अधिनियम के तहत किसानों को उसकी फसल का उचित मूल्य दिलवाने का नियम बना । आढ़तियों के शोषण से किसानों को निजात इसी अधिनियम ने दिलवाई ।
व्यवसाय श्रमिक अधिनियम - 1940
यह अधिनियम 11 जून 1940 को लागू हुआ । बंधुआ मजदूरी पर रोक लगाए जाने वाले इस कानून ने मजदूरों को शोषण से निजात दिलाई । सप्‍ताह में 61 घंटे, एक दिन में 11 घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकेगा । वर्ष भर में 14 छुट्टियां दी जाएंगी । 14 साल से कम उम्र के बच्चों से मजदूरी नहीं कराई जाएगी । दुकान व व्यवसायिक संस्थान रविवार को बंद रहेंगे । छोटी-छोटी गलतियों पर वेतन नहीं काटा जाएगा । जुर्माने की राशि श्रमिक कल्याण के लिए ही प्रयोग हो पाएगी । इन सबकी जांच एक श्रम निरीक्षक द्वारा समय-समय पर की जाया करेगी ।
कर्जा माफी अधिनियम - 1934
यह क्रान्तिकारी ऐतिहासिक अधिनियम दीनबंधु चौधरी छोटूराम ने 8 अप्रैल 1935 में किसान व मजदूर को सूदखोरों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए बनवाया । इस कानून के तहत अगर कर्जे का दुगुना पैसा दिया जा चुका है तो ऋणी ऋण-मुक्त समझा जाएगा । इस अधिनियम के तहत कर्जा माफी (रीकैन्सिलेशन) बोर्ड बनाए गए जिसमें एक चेयरमैन और दो सदस्य होते थे । दाम दुप्पटा का नियम लागू किया गया । इसके अनुसार दुधारू पशु, बछड़ा, ऊंट, रेहड़ा, घेर, गितवाड़ आदि आजीविका के साधनों की नीलामी नहीं की जाएगी ।
इस कानून के तहत अपीलकर्ता के संदर्भ में एक दंतकथा बहुत प्रचलित हुई थी कि लाहौर हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश सर शादीलाल से एक अपीलकर्ता ने कहा कि मैं बहुत गरीब आदमी हूं, मेरा घर और बैल कुर्की से माफ किया जाए । तब न्यायाधीश सर शादीलाल ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि एक छोटूराम नाम का आदमी है, वही ऐसे कानून बनाता है, उसके पास जाओ और कानून बनवा कर लाओ । अपीलकर्ता चौ. छोटूराम के पास आया और यह टिप्पणी सुनाई । चौ. छोटूराम ने कानून में ऐसा संशोधन करवाया कि उस अदालत की सुनवाई पर ही प्रतिबंध लगा दिया और इस तरह चौधरी साहब ने इस व्यंग्य का इस तरह जबरदस्त उत्तर दिया ।
1942 में सर सिकन्दर खान का देहांत हो गया और खिज्र हयात खान तीवाना ने पंजाब की राजसत्ता संभाली । उधर मुहम्मद अली जिन्ना ने 1944 में लाहौर में सर खिज्र हयात पर दबाव डाला कि चौधरी छोटूराम का दबदबा कम किया जाए और पंजाब की यूनियनिस्ट सरकार का लेबल हटाकर इसे मुस्लिम लीग सरकार का नाम दिया जाए । क्योंकि सर छोटूराम अब्दुल कलाम आजाद की नीतियों के समर्थक थे, मुहम्मद अली जिन्ना और चौधरी छोटूराम सीधे टकराव की स्थिति में आ गए । अब तो चौधरी छोटूराम की पार्टी के सामने मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों ही चुनौती बन गई थीं । लेकिन पहले और दूसरे महायुद्ध में चौधरी छोटूराम द्वारा कांग्रेस के विरोध के बावजूद सैनिकों की भर्ती से अंग्रेज बड़े खुश थे । अंग्रेजों ने हरयाणा के इलाके की वफादारियों से खुश होकर हरयाणा निवासियों को वचन दिया कि भाखड़ा पर बांध बनाकर सतलुज का पानी हरयाणा को दिया जाएगा ।
सर छोटूराम ने ही भाखड़ा बांध का प्रस्ताव रखा था । सतलुज के पानी का अधिकार बिलासपुर के राजा का था । झज्जर के महान सपूत ने बिलासपुर के राजा के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए ।
सन् 1924 से 1945 तक पंजाब की राजनीति के अकेले सूर्य चौ. छोटूराम का 9 जनवरी 1945 को देहावसान हो गया और एक क्रांतिकारी युग का यह सूर्य डूब गया ।